Friday, October 9, 2009

Ghazal by Naseer Turabi

तरके ताल्लुकात पे रोया ना तू , ना मैं,
लेकिन ये क्या की, चैन से सोया ना तू , ना मैं,

जब तक बिका ना था, तो कोई पूछता ना था,
तूने मुझे खरीद के अनमोल कर दिया,

वो हमसफ़र था, मगर उस से हम-नवाई ना थी,
की धूप छाँव का आलम रहा, जुदाई ना थी,

सुना है, गैर की महफ़िल में तुम ना जाओगे,
कहो तो आज सजा लूं गरीब खाने को,

कागा सब तन खाइयो, मोरा चुन चुन खाइयो माँस,
दो नैना मत खाइयो, इन्हें पिया मिलन की आस,

बिछड़ते वक़्त उन् आँखों में थी, हमारी ग़ज़ल,
ग़ज़ल भी वो जो किसी को अभी सुनाई ना थी,

तेरी सूरत से नहीं मिलती किसी की सूरत,
हम जहाँ में तेरी तस्वीर लिए फिरते हैं,

अजीब होती है राहे सुखन भी देख नसीर,
वहाँ भी आ गए जहाँ रसाई ना थी,

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