Tuesday, September 29, 2009

जबसे तुने मुझे दीवाना बना रखा है

नदी किनारे धुँवा उट्ठे, मैं जानु कुछ होए,
जिस कारन मैं जोगन बनी, कहीं वो ही जलता ना होए|

आप गैरों की बात करते हो, हमने अपने भी आज़माएँ हैं,
लोग काँटों से बच के चलते हैं, हमने फूलों से जख्म खाएं हैं|

तुलसी ऐसी प्रीत ना कर, जैसे पेड़ खजूर,
धूप लगे तो छाँव नहीं, भूख लगे फल दूर,

जबसे तुने मुझे दीवाना बना रखा है,
संग हर शख्स ने हाथों में उट्ठा रखा है|

उसके दिल पे भी कड़ी इश्क में गुज़री होगी,
नाम जिसने भी मोहब्बत का सज़ा रखा है|

काजल डालू किरकिरा सुरमा सहा ना जाए,
जिन नैनन में पी बसे , दूजा कहाँ समाये|

पत्थरों आज मेरे सर पे बरसते क्योँ हो,
मैंने तुमको भी कभी, अपना खुदा रखा है|

दुनिया बड़ी बावरी पत्थर पूजने जाए,
घर की चक्की कोई ना पूजे, जिसका पीसा खाए|

पी जा अय्याम की तलकी को भी हंस कर नासिर,
ग़म को सहने में भी कुदरत मज़ा रखा है|

"Cacoethes" : painting by rawat

Monday, September 21, 2009

मज़ा आ गया....

मेरे रश्क-ए-कँवर, तूने पहली नज़र जब नज़र से मिलायी, मज़ा आ गया,
बर्क सी गिर गयी, काम ही कर गयी, आग ऐसी लगायी, मज़ा आ गया|

जाम में घोल कर हुस्न की मस्तियाँ, चाँदनी मुस्कुरायी मज़ा आ गया,
चाँद के साए में, ए मेरे साथिया तूने ऐसी पिलाई, मज़ा आ गया|

नशा शीशे में अँगडाई लेने लगा, बज़्म-ए-रिन्दाँ में सागर खनकने लगे,
मैक़दे पे बरसने लगी मस्तियाँ, जब घटा गिर के छाई मज़ा आ गया,

बे-हिज़ाबानां वो सामने आ गए, और जवानी, जवानी से टकरा गयी,
आँख उनकी लड़ी यूँ मेरी आँख से, देख कर ये लड़ाई मज़ा आ गया|

आँख में थी हया, हर मुलाक़ात पर, सुर्ख-आरिज़ हुए वसल की बात पर|
उसने शरमा के मेरे सलावत पे, ऐसे गर्दन झुकाई मज़ा आ गया|

शेख साहिब का ईमान बिक ही गया, देख कर हुस्न-ए-साकी पिघल ही गया,
आज से पहले ये कितने मगरूर थे, लूट गयी पारशाई मज़ा आ गया,

ए फ़ना शुक्र है, आज बाद-ए-फ़ना, उसने रख ली मेरे प्यार की आबरू,
अपने हाथों से उसने मेरी कब्र पर चादर-ए-गुल चढ़ाई मज़ा आ गया|

Thursday, September 17, 2009

इस करम का करुँ शुक्र कैसे अदा ?

बे बंदगी उरूज़ किया, बन्दा कर दिया, तारा मेरे नसीब का ताबिंदा कर दिया,
इतनी बड़ी हुज़ूर की बन्दा-नवाजियाँ, मुझको मेरे सवाल ने शर्मिंदा कर दिया!

इस करम का करुँ शुक्र कैसे अदा ?, जो करम मुझ पे, मेरे नबी कर दिया!
मैं सजाता था सरकार की महफिलें, मुझको हर ग़म से रब ने बरी कर दिया|

ग़म-ए-आशिकी से पहले, मुझे कौन जानता था!
मुहबत-ए-मुस्तफ़ा से पहले, मैं कुछ नहीं था, मैं कुछ नहीं था,
करम की इस इन्तहा से पहले, मैं कुछ नहीं था, मैं कुछ नहीं था,
तेरे करम का तस्सदुक, तेरी अदा पे निसार,
मैं क्या था और मुझे क्या बना दिया तूने,
तेरी ज़ात ने बना दी मेरी जिन्दगी फ़साना|
इस करम का करुँ शुक्र कैसे अदा ? जो करम मुझ पे, मेरे नबी कर दिया!
मैं सजाता था सरकार की महफिलें, मुझको हर ग़म से रब ने बरी कर दिया|

अता किया मुझको दर्द-ए-उल्फ़त, कहाँ थी ये पुर खता की किस्मत,
मैं इस करम के कहाँ था काबिल, हुजुर की बन्दा परवरी है,
बन गयी बात, उनका करम हो गया, शाख-ए-नख्ले-तमन्ना हरी हो गयी,
मेरे लब पे मोहम्मद का नाम आ गया, बैठे बैठे मेरी हाज़िरी हो गयी,
खालिक ने मुझको मेरी तलब से सिवा दिया, सल्माया दाया इश्क-ए-मोहम्मद बना दिया,
इस करम का करुँ शुक्र कैसे अदा ?जो करम मुझ पे, मेरे नबी कर दिया!
मैं सजाता था सरकार की महफिलें, मुझको हर ग़म से रब ने बरी कर दिया|

ज़िक्र-ए-सरकार की है बड़ी बरकतें, जब लिया नाम-ए-नबी मैंने दुआ से पहले,
हो गयी मुझ पे अता मेरी खता से पहले, मोहम्मद मुस्तफ़ा का नाम भी क्या इसमें आज़म है,
जहाँ कोई ना काम आये वहां ये काम आता है,
मिल गयी राहतें, अज्मतें, उफरतें,
मैं गुनाहगार था, बेअमल था मगर, मुस्तफ़ा ने मुझे जन्नती कर दिया,
इस करम का करुँ शुक्र कैसे अदा ?जो करम मुझ पे, मेरे नबी कर दिया!
मैं सजाता था सरकार की महफिलें, मुझको हर ग़म से रब ने बरी कर दिया|