दश्त-ए-उम्मीद में गर्दां हैं दीवाने कब से
देर से आँख पे उतरा नहीं अश्कों का अज़ाब
अपने ज़िम्मे है तेरा क़र्ज़ न जाने कब से
किस तरह पाक हो बेआरजू लम्हों का हिसाब
दर्द आया नहीं दरबार सजाने कब से
सुर करो साज़ की छेडें कोई दिलसोज़ ग़ज़ल
ढूंढता है दिले-शोरीदा बहाने कब से
पुर करो जाम के: शायद हो इसी लहज़ा रवां
रोक रक्खा है जो इक तीर क़ज़ा ने कब से
"फैज़" फिर कब किसी मक़तल में करेंगे आबाद
लब पे वीरां हैं शहीदों के फ़साने कब से