Monday, December 7, 2009

इक़बाल : ए हकीक़ते-मुतज़र

कभी, ए हकीक़ते-मुतज़र, नज़र आ लिबासे-मजाज़ में
कि हज़ारों सिज्दे तड़प रहे हैं मेरी जबीने-नियाज़ में

जो मैं सर-ब-सिज़दा हुआ कभी, तो ज़मी से आने लगी सदा,
तेरा दिल तो है सनम-आशना, तुझे क्या मिलेगा नमाज़ में

ना वो इश्क़ में रहीं गर्मियां, न वो हुस्न में रहीं शोखियाँ,
ना वो गज़नवी में तड़प रही, ना वो ख़म है ज़ुल्फे- अयाज़ में

ना कहीं जहाँ में अमाँ मिली, जो अमाँ मिली तो कहाँ मिली,
मेरे जुर्मे-खाना ख़राब को, तेरे अफ़्वे-बंदानवाज़ में

तू बचा-बचा के न रख इसे, तेरा आइना है वो आइना
कि शिकस्ता हो तो अज़ीज्तर है निगाहे-आइनासाज़ में