Friday, October 9, 2009

ग़ालिब: दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है!

दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है!
आखिर इस दर्द की दवा क्या है!

हम हैं मुश्ताक और वो बेज़ार,
या इलाही ये माज़रा क्या है!

सब्ज़ा-ओ-गुल कहाँ से आये हैं,
अब्र क्या है, हवा क्या है!!! दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है!

जान तुम पे निसार करता हूँ,
मैं नहीं जानता वफ़ा क्या है?

जब की तुझ बिन नहीं कोई मौजूद,
फिर ये हंगामा, ए खुदा क्या है!!!

मैंने माना की कुछ नहीं ग़ालिब
मुफ़्त हाथ आये तो बुरा क्या है!!!! दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है!

ज़रा सी बात पे वो जग हंसाइयाँ दे कर

ज़रा सी बात पे वो जग हंसाइयाँ दे कर,
चला गया मुझे वो कितनी जुदाइयाँ दे कर,

चलो हर्फ़-ए-तमन्ना उसी के नाम करे,
के जिस ने क़ैद किया है रिहाइयाँ दे कर,

मगर वहाँ तो वही ख़मोशी का पहरा था,
मैं आ गया तेरे दर से, दुहाईयाँ दे कर,

अजीब शख्स के वो मुझ से बद-गुमाँ ही रहा,
के जिसको पाया था मैंने खुदाइयाँ दे कर,

हूँ कितना सादा समझता था बच रहूँगा सफी,
ख्याल-ए-यार को शोला नवाइयां दे कर

ज़रा सी बात पे वो जग हंसाइयाँ दे कर,
चला गया मुझे वो कितनी जुदाइयाँ दे कर,

Ghazal by Naseer Turabi

तरके ताल्लुकात पे रोया ना तू , ना मैं,
लेकिन ये क्या की, चैन से सोया ना तू , ना मैं,

जब तक बिका ना था, तो कोई पूछता ना था,
तूने मुझे खरीद के अनमोल कर दिया,

वो हमसफ़र था, मगर उस से हम-नवाई ना थी,
की धूप छाँव का आलम रहा, जुदाई ना थी,

सुना है, गैर की महफ़िल में तुम ना जाओगे,
कहो तो आज सजा लूं गरीब खाने को,

कागा सब तन खाइयो, मोरा चुन चुन खाइयो माँस,
दो नैना मत खाइयो, इन्हें पिया मिलन की आस,

बिछड़ते वक़्त उन् आँखों में थी, हमारी ग़ज़ल,
ग़ज़ल भी वो जो किसी को अभी सुनाई ना थी,

तेरी सूरत से नहीं मिलती किसी की सूरत,
हम जहाँ में तेरी तस्वीर लिए फिरते हैं,

अजीब होती है राहे सुखन भी देख नसीर,
वहाँ भी आ गए जहाँ रसाई ना थी,

आ गया यूँ मेरे होठों पे

आ गया यूँ मेरे होठों पे, तेरा नाम की बस,
वो चरागाँ किया आँखों ने सरे शाम की बस,

याद क्या जानिए वो कौनसी बात आई है,
दिल ने फिर आज उठाया है वो कोहराम की बस,

एक दमकता हुआ तारा सरे मिजेगाहाँ आया,
उसने आँखों से दिया था कोई पैगाम की बस,

हम भी सुनते हैं की नाज़ाँ है बहुत हुस्न पे चाँद,
एक नज़र देख तो ले तुझको लगे बाम के बस,

सांस लेना भी सफी बाइशे-आज़ार हुआ,
वो लगे दिल पे, तेरे हिज्र में, इल्जाम की बस,

Saturday, October 3, 2009

मुर्शद

अलफ़ अल्लाह चम्बे दी बूटी, मन मुर्शद मेरे लाइ हू
नफ़ी अस्बाद दा मिल्या पानी, हर बूटी हर जाई

अन्दर बूटी मुशक रचाया, जान फ़ुलन ते आई,
जीव्वे मेरा कामल बाहू, जीव्वे बूटी लाइ

ईहे तन मेरा चश्मा होया, मैं मुर्शद वेखें रज्जाँ हू
लू लू विच लख लख चश्मा, इक खोलां इक कज्जाँ हू

इतना दिट्ठ्या, मैनूं सबर ना आवे, मैं होर किस वळ भज्जाँ हू