Thursday, October 2, 2008

नहीं निगाह में मंजिल

नहीं निगाह में मंजिल, तो जुस्तज़ू ही सही| 
नहीं विस्हाल मयस्सर, तो आरज़ू ही सही||  

ना तन में खूं फ़राहम, ना अश्क आंखों में| 
नमाज़-ऐ-शौक़ तो वाजिब है, बेवुज़ू ही सही||  

किसी तरह तो जमे, बज़्म मैकदे वालों, 
नहीं जो बादा-ओ-सागर तो, हा हू ही सही||

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