Thursday, October 2, 2008

गुल हुई जाती है

गुल हुई जाती है, अफ़सुर्दा सुलगती हुई शाम| 
धुल के निकलेगी अभी, चश्म-ऐ-महताब से रात||  

गुल हुई जाती है, अफ़सुर्दा सुलगती हुई शाम|  

और मुश्ताक निगाहों की सुनी जायेगी, 
और उन् हाथों से मस्स होंगे, ये तरसे हुए हाथ||  
उनका आँचल है कि, रुख़सार के पैराहन है, 
कुछ तो है जिससे हुई जाती है चिलमन रंगीं, 
जाने उस ज़ुल्फ़ की मोहूम घनी छांवों में, 
टिमटिमाता है वो आवेज़ा, अभी तक की नहीं||  

गुल हुई जाती है, अफ़सुर्दा सुलगती हुई शाम|  

आज फिर हुस्न-ऐ-दिलारा की वही धज़ होगी, 
वो ही खाबीदा सी आँखें, वो ही काजल की लकीर, 
रंग-ऐ-रुक्सार, हल्का सा वो गाज़े का गुबार, 
संदली हाथ पे धुंधली सी हिना की तहरीर, 
अपने अफ़कार की अशार की दुनिया है यही, 
जाने मजमू है यही, शाहिदे-ऐ-माना है यही, 
अपना मौज़ू-ऐ-सुखन इन् के सिवा और नही, 
तब-ऐ-शायर वतन इनके सिवा, और नही, 
ये खूं की महक है, की लब-ऐ यार की खुशबू, 
किस राह की जानिब से शब आती है देखो, 
गुलशन में बहार आई, की जिंदा हुआ आवाद, 
किस सिंध से नग्मों की सदा आती है देखो||  

गुल हुई जाती है, अफ़सुर्दा सुलगती हुई शाम|

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