Thursday, October 2, 2008

शाम-ऐ-फ़िराक

शाम-ऐ-फ़िराक अब ना पूछ, आई और आ के टल गई|
दिल था के फिर बहल गया, जां थी की फिर संभल गई||
 
बज़्म-ऐ-ख्याल में, तेरे हुस्न की शम्मा जल गई| 
दर्द का चाँद बुझ गया, हिज़्र की रात ढल गई|| 
 
जब तुझे याद कर लिया, सुबह महक महक उट्ठी| 
जब तेरा ग़म जगा लिया, रात मचल मचल गई||
 
दिल से तो हर मुआमला, कर के चले थे साफ़ हम| 
कहने में उनके सामने, बात बदल बदल गई||  

आख़िर-ऐ-शब् के हमसफ़र, फैज़ ना जाने क्या हुए| 
रह गई किस जगह शब, सुबह किधर निकल गई||

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