Wednesday, August 12, 2009

धुंआ बना के, फ़िज़ा में उड़ा दिया मुझको

धुंआ बना के, फ़िज़ा में उड़ा दिया मुझको,
मैं जल रहा था, "किसी" ने बुझा दिया मुझको|

खड़ा हूँ आज भी रोटी के चार हर्फ़ लिए,
सवाल ये है, किताबों ने क्या दिया मुझको|

सफ़ेद संग की चादर लपेट कर मुझ पर,
फसील-ए-सहर पे किसने सजा दिया मुझको|

मैं एक ज़र्रा बुलंदी को छूने निकला था,
"हवा" ने थम के ज़मीं पे गिरा दिया मुझको|

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